क्या मैं अन्ना हूँ
...पैंसो की चमक ने चुराया फर्ज ए नमक खुन हुआ इमान का ।भूलाया मातृभूमि का कर्ज,खुद बने बेईमान साथ दिया कई बार बेईमान का।
कचोटते रहते गर खुद के जहन को,तो बचा लेते शर्म का पानी।
तकदीरें संवर चुकी होती,न वक्त जाया होता यूं बेमानी।
सुबह का भूला गर शाम को लौटे,तो उसे भूला नहीं कहते,फर्ज भूलने में आज हमने अपना सबकुछ गवां दिया।
काश शाम को लौट आये होते,पर लौटने में हमने एक अरसा लगा दिया।
आज अंधरो में गंवाए बिते पलो का, चुकाना पुरा लगान हैं।
अब मकसद से ना भटकना क्योंकि भीड़ में खुद को अन्ना कहना बेहद आसान हैं।
हुंकार भरता नारे लगाता, क्या मैं उदय होते भारत की तमन्ना हूं।
बुढ़े जहन में फौलाद पालता, क्या मैं भारता का अगला अन्ना हूँ॥
शशिकांत तिवारी ,भिलाई (छ.ग.)
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